-अशोक “प्रवृद्ध”
शहीदों के सरताज एवं शान्तिपुंजअर्जुन देव या गुरू अर्जुन देव सिखों के पंचम गुरू थे, जिन्हें आध्यात्मिक जगत में गुरु के रूप में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। अपने धर्म के प्रति निष्ठां और धर्मनिरपेक्षता के लिए अपनी प्राण की आहुति देने वाले अर्जुन देव जी का जन्म गोइंदवाल साहिब में18 वैशाख कृष्ण सप्तमीविक्रम संवत 1620 तदनुसार 15अप्रैल1563 ईस्वी को हुआ था ।वेसिखों के परम पूज्य चतुर्थ अर्थात चौथे गुरु गुरु राम दास के सुपुत्र थे और उनकी माता का नाम बीवी भानी जी था। उनका विवाह 1579ईसवी में हुआ था। उनकी पत्नी का नाम गंगा जी तथा उनके पुत्र का नाम गुरु हरगोविंद सिंह थे जो उनके बाद सिखों के षष्टम गुरु बने।इतिहास के अनुसार बालक अर्जुनदेव अपने ननिहाल घर में ही पालित-पोषित और जवान हुए। कहा जाता है कि एक बारबालक अर्जुनदेव खेलते-खेलते अपने नाना श्री गुरु अमर दास जी के पलंग को पकड़कर खड़े हो गए। उनकी माता बीबी भानी जी ऐसा देखकर उन्हें पीछे हटाने लगी। इस पर इनके नाना गुरु अमर दास जी नेबालक अर्जुन को पकड़कर गले लगते हुए प्यार से अपनी सुपुत्री से कहा कि यह अब ही गद्दी लेना चाहता है मगर गद्दी इसे समय पर अपने पिताजी से ही मिलेगी। अमरदास ने इनके भारी शरीर को देखकर वचन किया कि जगत में यह भारी गुरु प्रकट होगा, बाणी का जहाज़ तैयार करेगा और जिसपर चढ़कर अनेक प्रेमियों का उद्धार होगा। इस प्रकार गुरु अमरदास का वरदान वचन आगे चलकर सत्य फलवती हुआ ।इस तरह अर्जन देव अपने ननिहाल घर में अपने मामों श्री मोहन जी और श्री मोहरी जी के घर में बच्चों के साथ खेलते बड़े हुए और शिक्षा ग्रहण की। इनकी उम्र 16 वर्ष की हो जाने पर 23 आषाढ़ संवत 1636 को इनकी शादी गंगा जी तहसील फिल्लोर के मऊ नामक स्थान पर श्री कृष्ण चंद जी की सुपुत्री गंगा जी के साथ हुई। शादी के स्थान पर एक सुन्दर गुरुद्वारा बना हुआ है। इस गाँव में पानी की कमी हो गई थी। गुरु अर्जुनदेव ने वहां एक कुआं खुदवाया जो आज भी उपलब्ध है।गुरु रामदास जी द्वारा श्री अर्जन देव जी को लाहौर भेज दिया गया । दो वर्ष बीत जाने पर भी पिता गुरु की तरफ से जब कोई बुलावा ना आया, तब अर्जुनदेव ने अपने हृदय की तड़प को प्रकट करने के लिए एक मार्मिक पत्र अपने गुरु पिता को लिखी। जब इस पत्र का कोई प्रत्युतर न मिला तो उन्होंने एक- एक कर तीन पत्र पिता को प्रेषित कर दी।गुरुजी ने जब अपने पुत्र की यह सारी चि_ियाँ पढ़ी तो उन्होंने बाबा बुड्डा जी को लाहौर भेजकर उन्हें गुरु के चक बुला लिया। इस पर अर्जुनदेव ने गुरु पिता को माथा टेका और मिलाप की खुशी में चौथा पद उच्चारण किया। गुरु पिता के प्रति अति श्रधा और प्रेम प्रगट करने वाली यह मीठी बाणी सुनकर गुरु जी अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने अर्जुनदेव को हर प्रकार से गद्दी के योग्य मानकर भाई बुड्डा जी और भाई गुरदास आदि सिखों से विचार कर भाद्र सुदी एकम संवत् 1639 को सब संगत के सामने पांच पैसे और नारियल अर्जुनदेव के आगे रखकर तीन परिक्रमा करके गुरु नानक जी की गद्दी को माथा टेक दिया। और सब सिख संगत को वचन किया कि आज से श्री अर्जन देव जी ही गुरुगद्दी के मालिक हैं। इनको आप हमारा ही रूप समझना और सदा इनकी आज्ञा में रहना।
सिखों के पाँचवें गुरु के रूप में गुरु अर्जन देव (जन्म- 15 अप्रैल, सन 1563,मृत्यु- 30 मई, 1606) 1 सितम्बर, 1581 ईस्वी में गद्दी पर बैठे। कई दृष्टियों से सिख गुरुओं में विशिष्ट स्थान प्राप्त अर्जुनदेव ने ही वर्तमान रूप में उपलब्ध गुरु ग्रंथ साहबका संपादन किया था। गुरु अर्जन देव सिखों के परम पूज्य चौथे गुरु रामदास के पुत्र थे। गुरु नानक से लेकर गुरु रामदास तक के चार गुरुओं की वाणी के साथ-साथ उस समय के अन्य संत महात्माओं की वाणी को भी इन्होंने गुरु ग्रंथ साहबमें स्थान दिया।समस्त संतप्त मानवता को शांति का संदेश देने वाली गुरु अर्जुन देव जी द्वारा रचित अमर -वाणी सुखमनी साहिब में संकलित हैं , जिस सुखमनी साहिब का दिन चढ़ते ही पाठ कर करोड़ों प्राणी शांति प्राप्त करते हैं।।सुखमनी साहिब में चौबीस अष्टपदी हैं और सभी राग गाउडी में रची गई रचना है। यह रचना सूत्रात्मक शैली की है। इसमें साधना, नाम-सुमिरन तथा उसके प्रभावों, सेवा और त्याग, मानसिक दुख-सुख एवं मुक्ति की उन अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है, जिनकी प्राप्ति कर मानव अपार सुखोंकी उपलब्धि कर सकता है। सुखमनी शब्द का अर्थ है- मन को सुख देने वाली वाणी या फिर सुखों की मणि इत्यादि। कहा गया है-
सुखमनीसुख अमृत प्रभु नामु।
भगत जनां के मन बिसरामु॥
सुखमनी साहिब सुख का आनंद देने वाली वाणी है। सुखमनी साहिब मानसिक तनाव की अवस्था का शुद्धीकरण भी करती है। प्रस्तुत रचना की भाषा भावानुकूलहै। सरल ब्रजभाषा एवं शैली से जुडी हुई यह रचना गुरु अर्जुन देव जी की महान पोथी है।ब्रह्मज्ञानी के रूप में भी ख्यातिप्राप्त अर्जुनदेव की तीस रागों में वाणी गुरुग्रंथ साहिब में संकलित है। गणना की दृष्टि से श्री गुरुग्रंथ साहिब में सर्वाधिक वाणी पंचम गुरु की ही है।ग्रंथ साहिब का संपादन गुरु अर्जुन देव ने भाई गुरदास की सहायता से 1604 ईस्वी में किया। ग्रंथ साहिब की संपादन कला अद्वितीय है, जिसमें गुरु जी की विद्वत्ता झलकती है। उन्होंने रागों के आधार पर ग्रंथ साहिब में संकलित वाणियों का जो वर्गीकरण किया है, उसकी मिसाल मध्यकालीन धार्मिक ग्रंथों में दुर्लभ है। यह उनकी सूझबूझ का ही प्रमाण है कि ग्रंथ साहिब में छतीस महान वाणीकारोंकी वाणियां बिना किसी भेद- भाव के संकलित हुई।शांत और गंभीर स्वभाव के स्वामी गुरु अर्जुनदेव अपने युग के सर्वमान्य लोकनायक थे, जो दिन-रात संगत सेवा में लगे रहते थे। उनके मन में सभी धर्मो के प्रति अथाह स्नेह था। मानव-कल्याण के लिए उन्होंने आजीवन शुभ कार्य किए।
उल्लेखनीय है कि गुरमति-विचारधाराके प्रचार-प्रसार तथा पंजाबी भाषा साहित्य एवं संस्कृति को समृद्ध करने में गुरूजी का अद्भुत योगदान है । इस अवदान का पहला प्रमाण ग्रंथ साहिब का संपादन है। जिसमें एक ओर जहां लगभग 600वर्षो की सांस्कृतिक गरिमा को पुन:सृजित किया गया, वहीं दूसरी ओर नवीन जीवन-मूल्यों की जो स्थापना हुई, जिसके कारण पंजाब में नवीन-युग का सूत्रपात भी हुआ।सिख संस्कृति को घर-घर तक पहुंचाने के लिए अथाह प्रयत्??न करने वाले अर्जुनदेव का गुरु दरबार की सही निर्माण व्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। गुरु ग्रंथ साहिब में गुरु अर्जन देव के स्वयं के लगभग दो हज़ार शब्द संकलित हैं। इनकी रचना की महता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अर्जन देव की रचना सुषमनपाठका सिख नित्य पारायण करते हैं।अर्जन देव ने अपने पिता द्वारा अमृतसर नगर के निर्माण कार्य को आगे बढ़ाया था।इन्होंने अमृत सरोवरका निर्माण कराकर उसमें हरमंदिर साहबका निर्माण कराया, जिसकी नींव सूफ़ी संत मियाँ मीर के हाथों से रखवाई गई थी।तरनतारन नगर भी गुरु अर्जुन देव के समय में बसा हुआ एक नगर है।1590 ईस्वी में तरनतारनके सरोवर की पक्की व्यवस्था भी उनके प्रयास से हुई। अर्जुन देव ने सार्वजनिक सुविधा के लिए जो काम किए उनसे मुगल सम्राट अकबर बहुत प्रभावित था और वह गुरु अर्जुनदेव का बहुत सम्मान करता था।
ऐसा कहा जाता है कि गुरु ग्रंथ साहिब के संपादन को लेकर कुछ असामाजिक तत्वों ने बादशाह अकबर के पास यह शिकायत की कि ग्रंथ में इस्लाम के खिलाफ लिखा गया है, लेकिन बाद में जब पड़ताल करने पर अकबर को वाणी की महानता का पता चला, तो उन्होंने भाई गुरदास एवं बाबा बुढ्ढाके माध्यम से 51मोहरें भेंट कर खेद ज्ञापित किया। जहाँगीर ने लाहौर जो की अब पाकिस्तान में है, में 16 जून 1606 को अत्यंत यातना देकर उनकी हत्या करवा दी।गुरूजी के बलिदान तिथि के सम्बन्ध में थोड़ी विद्वानों में मतभिन्नता है। कुछ अन्य इतिहासकारों के अनुसार विपरीत परिस्थितियों में 30 मई, 1606 ईस्वी में रावी नदी के तट पर आकार गुरु अर्जन देव का देहांत हो गया।इस वर्ष प्रचलित कैलेंडरों में 29 मई को उनका बलिदान दिवस बताया गया है ।इस सम्बन्ध में प्राप्त विवरण के अनुसार अकबर के देहांत के बाद कट्टरपंथी जहांगीर दिल्ली का शासक बना। उसे अपने धर्म इस्लाम के अतिरिक्त और कोई धर्म पसंद नहीं था। गुरु जी के धार्मिक और सामाजिक कार्य भी उसे सुखद नहीं लगते थे। शहजादा खुसरोको शरण देने के कारण जहांगीर गुरु जी से नाराज था। अत: 15मई, 1606 ईस्वी को बादशाह ने गुरु जी को परिवार सहित पकडने का हुक्म जारी किया।जहाँगीर ने गुरु जी को सन्देश भेजा। बादशाह का सन्देश पढ़कर गुरु जी ने अपना अन्तिम समय नजदीक समझकर अपने दस-ग्यारह सपुत्र श्री हरिगोबिंद जी को गुरुत्व दे दिया। उन्होंने भाई बुड्डा जी, भाई गुरदास जी आदि बुद्धिमान सिखों को घर बाहर का काम सौंप दिया। इस प्रकार सारी संगत को धैर्य देकर गुरु जी अपने साथ पांच सिखों-भाई जेठा जी, भाई पैड़ा जी, भाई बिधीआ जी, लंगाहा जी और पिराना जीको साथ लेकर लाहौर पहुँचे। दूसरे दिन जब आप अपने पांच सिखों सहित जहाँगीर के दरबार में गए। तो उसने कहा आपने मेरे बागी पुत्र को रसद और आशीर्वाद दिया है। आपको दो लाख रुपये ज़ुर्माना देना पड़ेगा नहीं तो शाही दण्ड भुगतना पड़ेगा।गुरु जी ने जहाँगीर की बात नहीं मानी तो उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए भी दबाव दिया गया। गुरूजी इसके लिए भी तैयार न हुए और भांति – भांति के दारुण कष्ट झेलते हुए प्राण गँवाने को तैयार हो गये।तुजा के-जहांगीरी के अनुसार उनका परिवार मुरतजाखान के हवाले कर घरबार लूट लिया गया। इस बाद गुरु जी ने शहीदी प्राप्त की। अनेक कष्ट झेलते हुए गुरु जी शांत रहे, उनका मन एक बार भी कष्टों से नहीं घबराया।तपता तवा उनके शीतल स्वभाव के सामने सुखदाईबन गया। तपती रेत ने भी उनकी निष्ठा भंग नहीं की। गुरु जी ने प्रत्येक कष्ट हंसते-हंसते झेलकर यही अरदास की।
ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार वस्तुत: अर्जन देव के बढ़ते हुए प्रभाव को जहाँगीर सहन नहीं कर सका, और उसने अपने पुत्र खुसरों की सहायता से अर्जुनदेव को क़ैद कर लिया।जहाँगीर द्वारा क़ैद में गुरु अर्जन देव को तरह-तरह की यातनाएँ दी गईं। इन्हीं परिस्थितियों में 30 मई, 1606 ईस्वी में रावी नदी के तट पर आकार गुरु अर्जन देव का देहांत हो गया।भारतीय समय गणनानुसार वह दिन ज्येष्ठ सुदी चौथ संवत 1553 विक्रमी का था जिस दिन धर्म- निरपेक्ष विचारधारा को मान्यता देने के समर्थन में गुरु जी ने आत्म-बलिदान देकर किया था और राष्ट्र को संदेश दिया था कि महान जीवन मूल्यों के लिए आत्म-बलिदान देने को सदैव तैयार रहना चाहिए, तभी जाति और राष्ट्र अपने गौरव के साथ जीवंत रह सकते हैं।
