संपादकीय

जाने से पहले…

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त
यह मेरा आखिरी सफर है। घरवालों ने 108 पर लाख फोन मिलाया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। जवाब मिला कि आप अपनी व्यवस्था खुद कर लें। मुझे आज पता चला कि सरकार ने जनता को आत्मनिर्भर बनाने का यह नायाब तरीका खोज निकाला है। मैं जानता हूँ कि दिहाड़ी मजदूरी करने वाले पिता के लिए निजी एंबुलेंस में मुझे अस्पताल ले जाने तक के पैसे नहीं हैं। जैसे-तैसे जुगाड़ किया। मुझे एंबुलेंस में चढ़ाया गया। एंबुलेंस में न ऑक्सीजन की व्यवस्था है, न लेटने की। गाड़ी भी बीच-बीच में ऐसे रुक जाती जैसे गठबंधन की सरकार हो। पापा माथे पर बार-बार हाथ फेरते। सोचते कि ऐसा करने से मुझे कुछ राहत मिलेगी। मैं एंबुलेंस के बाहर झांककर देखता तो मुझे बड़े-बड़े होर्डिंग दिखायी देते। होर्डिगों पर लिखा होता यह सरकार आपकी है। आपके स्वास्थ्य, सुरक्षा और शिक्षा के लिए दिन-रात तत्पर है। यहाँ सब कुछ मुफ्त है। ऐसा नहीं है कि इन होर्डिंगों को मैं पहली बार देख रहा हूँ। इस रास्ते मैं कई बार आ-जा चुका हूँ किंतु आज मेरी जैसी तबियत है उसके बीच इन होर्डिंगों का खोखलापन मुर्दों को भी हँसने पर मजबूर कर रहा है।
मैंने देखा यहाँ चप्पे-चप्पे पर शराब की दुकान है। निजी अस्पतालों की भरमार है। निजी स्कूलों का छत्ता है। अगर नहीं है कुछ तो सरकारी अस्पताल, सरकारी स्कूल। सरकारी अस्पताल जाने पर वहाँ डॉक्टरों ने मुझे देखना तो दूर पास आने से मना कर दिया। वार्ड ब्याय ने माँ-पापा से ऐसे व्यवहार किया जैसे वे गटर के कीड़े हैं। वह माँ-पापा पर जोर से चिल्लाया। वे सहमकर रह गए। ऐसा नहीं है कि वार्ड ब्वाय सबके साथ एक सा व्यवहार कर रहा है। कुछ लोग उसके हाथों में न जाने ऐसा क्या रख दे रहे हैं कि वह उन्हें पीछे के रास्ते कहीं ले जा रहा है। मेरी सांसें चंद पलों की मोहताज हैं। कितना अच्छा होता कि मोबाइल रिचार्ज की तरह सांसों का रिचार्ज होता। शायद माँ-पापा खरीद लेते मेरे लिए छोटा सा पैक और मुझे थोड़ी देर के लिए जीवित रख पाते।
मैं मरने से पहले माँ की बाहों में तड़प रहा हूँ। पिता के जिन कंधों पर मैंने खेला आज उन्हें सिकुड़ते हुए देख रहा हूँ। सरकार के लिए मैं एक आंकड़ा हूँ, लेकिन माँ-पापा के लिए सब कुछ हूँ। मुझे स्कूल में पढ़ाया गया था कि सरकार जनता की देखभाल के लिए होती है। मैं गलत था। सरकार जनता से ज्यादा चुनावों से प्यार करती है। समय पर चिकित्सा, नौकरी, अनाज दे न दे, लेकिन चुनाव कराने में तनिक भी देरी नहीं करती। मुझे आज पता चला कि सरकार जनता के लिए नहीं चुनावों के लिए काम करती है। जनता है कि बकरी की तरह सरकार में अपना सुनहरा भविष्य खोजती है। अच्छा अब मैं विदा लेता हूँ। मैं सरकारी आंकड़ों में, ग्राफ और चार्ट में फलाँ बीमारी को बताने वाली संख्या के रूप में दर्ज होने जा रहा हूँ। दुख इस बात का रहेगा कि कहीं भी मुझे सरकारी हत्या के रूप में नहीं देखा जाएगा।

Post By Tisha 

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